Friday, August 14, 2009

मीठा, पहली तारीख और मीठेपन की जरूरत और उसकी भरपाई

टीवी पर आजकल एक विज्ञापन बहुत चल रहा है—मीठा है खाना आज पहली तारीख है। मीठे की जरूरत हर जगह है। जिन्‍दगी के लिए भी और जिन्‍दगी के अहम हिस्‍से स्‍वाद के लिए भी। डॉक्‍टर बताते हैं कि मीठे से ताकत भी मिलती है। मीठा सबको चाहिए अमीर हो या गरीब। अमीर की तो बात ही अलग है। उसका मीठा उसके रोजमर्रे के खाने का हिस्‍सा होती है। आजकल का खाता-पीता मिडिल क्‍लास भी फिक्रप्रूफ है इस मामले में। शाम को मॉल या मिठाई की दुकान में ठीक-ठाक मीठा खा लेता है। पहली तारीख वाला जुमला असल में थोड़े तंगहाल मिडिल क्‍लॉस के लिए है। उसके लिए मीठे का मतलब है कम से कम पूरे परिवार के लिए दो-ढाई सौ रूपये खर्चना। इसके लिए उसे पहली तारीख का इंतजार तो करना ही पड़ेगा (भाई बड़ा जुल्‍म है ये तो...)।

होली की तरह जन्‍माष्‍टमी भी मिठाई वाला त्‍यौहार है। याद आता है कि जन्‍माष्‍टमी पर घर पर नारियल वाली और कोई और किस्‍म की बरफी बनती थी। जिसे जमने के बाद थाली में चाकू से काटने में बड़ा मजा आता था। क्‍या जीवन में जैसे मिठास कम हो रही है वैसे मिठाई का रोल भी कम होता जा रहा है। या बाजार ने मीठे को हड़प लिया है। पहले चंद रूपयों में घर में बन जाने वाली देसी और बेहद पौष्टिक बरफी की जगह अब चॉकलेट खाने के लिए पहली तारीख का इंतजार करना कुछ बताता है। यह बाजार को मीठाद्रोही बनाकर हमारे सामने लाता है। बाजार ने सिर्फ जिन्‍दगी से ही नहीं हमारे खान-पान से भी मिठास छीन ली है।

लेकिन जिन्‍दगी है तो मीठा होगा ही। इस तंगहाल मिडिल क्‍लॉस से मीठा बेशक थोड़ा दूर हो चला हो लेकिन गरीब तबके ने महंगे होते मीठे के अपने विकल्‍प ढूंढ़ लिये हैं। अगर आप बीड़ी-सिगरेट-पान के खोखे पर जाएं, चाय की थड़ी पर बैठें तो सबसे सामने मिठाइयों के मर्तबान नजर आ जाएंगे। यहां सब कुछ है। एक रूपये की बरफी, दो रूपये में पतीसा, बेसन और बूंदी का लड्डू, नारियल की बरफी भी है तो डोडे और बालूशाही की शक्‍लोसूरत वाली मिठाइयां भी। दिमाग में आएगा—अमां ये पान की दुकान है या हलवाई पहलवान। जाहिर है एक-दो-तीन रूपये में ये लजीज मिठाइयां असली मिठाइयों की क्‍लोन हैं। लेकिन हैं बहुत बढि़या चीजें। 60 से 100 रुपया रोजाना कमाने वाले की न तो पहली तारीख आती है और न उसकी औकात होती है दो-ढाई सौ की मिठाई या चॉकलेट खाने की। लेकिन मीठा तो उसे भी चाहिए। लिहाजा ये सस्‍ती मिठाइयां इसकी भरपाई करती हैं। इस तबके के लिए 5 रुपये में जलेबी खा लेना भी इसी का एक विकल्‍प है। असल में इस आबादी को हाड़तोड़ मेहनत के बाद खाने को तो कुछ खास मिलता नहीं है। और शरीर मेहनत के बाद खुराक मांगता है। इस कुछ भरपाई यह आबादी मीठा खाकर करती है। चाहे वह पान की दुकान पर एक रुपये की बरफी खाकर हो या 5 रुपये की जलेबी खाकर। यहां पर इसकी गुणवत्ता की बात बेमानी है। बात मीठेपन की है जो जरूरी है। सो वह न तो पहली तारीख का इंतजार करता है न रोकता-झींकता है। अपनी मुश्किल जिन्‍दगी को मीठे से थोड़ी देर ताजादम और प्रफुल्लित करके आगे बढ़ जाता है फिर से इस पूरी दुनिया के लिए खटने के लिए...। मीठापन शायद उसी के पास सबसे ज्‍यादा है। क्‍या आपको ऐसा नहीं लगता?

Sunday, July 5, 2009

इंडिया टीवी उर्फ सनसनाती इब्‍लाबू

कल एक पोस्‍ट पर इंडिया टीवी का कारनामा दिखाई पड़ा। भारतीय टीवी पत्रकारिता में इंडिया टीवी का ऐतिहासिक महत्‍व है। नुक्‍कड़-चौराहों पर बिकने वाली सस्‍ती मैगजीनों के र्शीषक को जिस खूबसूरती से इस टीवी ने खबर की शक्‍ल दी है, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। इसने आम लोगों की बोलचाल और लड़ाई-झगड़े की भाषा को पहली बार टीवी पर जगह दी। दिन-रात तालिबान से लेकर पाकिस्‍तान को जितना उसने हड़काया है इतना तो शायद बुश या ओबामा ने भी बेचारे पाकिस्‍तानियों को क्‍या हड़काया होगा। इसके तेवरों से तो यूपीए सरकार की विदेश नीति भी सहम गई है। ये इसी टीवी का कमाल है कि भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र के प्राचीन भारतीय ज्ञान को टीवी पर पेश किया गया। वैसे इस टीवी की ज्‍यादातर खबरें खबरें होती ही नहीं है, मतलब ज्‍यादातर एक्‍सक्‍लूजिव खबरें होती हैं। अभी माइकल जैक्‍सन की मौत पर खबर आई कि उसका पुनर्जन्‍म हो चुका है। फिर खबर आई कि माइकल नहीं उसका हमशक्‍ल मारा गया है। ऐसी कल्‍पनाशक्ति किसी भारतीय टीवी चैनल हो तो मुकाबला कर लें। बहरहाल इंडिया टीवी के बारे में चंद लाइनें पेश हैं इंडिया टीवी की ही शैली में। (आवाज की शैली ध्‍यान में रखकर इसका पठन-पाठन किया जाए)।
खबरदार इंडिया टीवी!
सनसनी मत फैलाओ!
टीवी दर्शकों का उल्‍लू मत बनाओ!
भारतीय दर्शक अब जाग रहा है!
होश में आओ इंडिया टीवी!
क्‍या इंडिया टीवी फिल्‍मी कलियां को पीछे छोड़ सकता है!
जानिए आज रात 11.30 बजे!

Thursday, July 2, 2009

लिब्राहन रिपोर्ट पर कुछ स्‍वीकारोक्तियां

- मैंने ढांचा तोड़ने के लिए नहीं कहा था।
- मैंने भी नहीं कहा था।
- मैंने भड़काऊ भाषण दिया था पर कहा मैंने भी नहीं था।
- अजी, मैं तो जेल भी हो आया। पर कहा मैंने भी नहीं था।
- उस वक्‍त हालात पर हमारा नियंत्रण नहीं था।
- कार्यकर्ता बेकाबू हो गये थे जनाब।
- देखिए, मैं तो उस वक्‍त रो रहा था।
- ये कांग्रेस की साजिश है।
- गड़े मुर्दे उखाड़ने से कुछ नहीं मिलेगा।
- उस समय जो हुआ वह जनभावनाएं थीं।
- वह एक दुर्भाग्‍यशाली पल था।
- अतीत को भुला दिया जाना चाहिए।
- अरे महाराज, पांच साल कुर्सी तक तो पहुंचा दिया उस ढांचे ने। अब छोड़ि‍ए भी।

Wednesday, July 1, 2009

एमसीडी के 45,000 कर्मचारी कम नहीं 2,000 ज्‍यादा हैं

कल की खबर से एमसीडी में हडकम्‍प था कि 45,000 कर्मचारी अगर नहीं हैं तो उनकी तनख्‍वाह कौन ले रहा है? लेकिन आज अधिकारियों और सुपरवाइजरों ने वह कारनामा कर दिखाया जो युगों-युगों तक याद रखा जाएगा। आज दोपहर तक की हाजिरी के बाद पता चला है कि 45,000 कर्मचारी तो रातों-रात अचानक अवतरित हो ही गये हैं बल्कि 2,000 कर्मचारी ज्‍यादा पाये गये।
आज अगर आपने सड़कों पर गौर किया हो तो एमसीडी के ढेरों कर्मचारी काम करते हुए दिखाई दिये होंगे। दरअसल कल की खबर के बाद एमसीडी के सुपरवाइजर और अधिकारी परेशान थे कि फर्जी कर्मचारियों का मामला मुसीबत बन सकता है। सो आनन-फानन में कर्मचारी पैदा किये गये (खबर है कि कई नाते-रिश्‍तेदारों को और दिहाड़ी पर मजदूरों को रखकर संख्‍या पूरी की गई)। खैर 45,000 कर्मचारी तो पूरे हो गये लेकिन इस जल्‍दबाजी में कुछ ज्‍यादा ही इंतजाम हो गया और संख्‍या 45,000 गायब कर्मचारियों से ऊपर पहुंच गयी। अब एमसीडी के कर्ताधर्ता फिर परेशान हैं कि कल तक इतने ज्‍यादा कम थे अब ज्‍यादा हो गये। खबर है कि फिलहाल एक उच्‍च स्‍तरीय बैठक में पहले आपस में ही एक-दूसरे की गिनती की जा रही है ताकि कम से कम उच्‍चस्‍तर पर तो एक सही संख्‍या बताई जा सके। इधर सुपरवाइजरों और अधिकारियों के सामने समस्‍या यह है कि आज तो गिनती पूरी कर ली। लेकिन आगे क्‍या होगा...। सफाई कर्मचारी भी इस बार काफी खुश हैं। भ्रष्‍ठ सुपरवाइजरों और अधिकारियों की वजह से एक तो उन्‍हें काम ज्‍यादा करना पड़ता था और सारी मुसीबत भी उन्‍हीं पर आती थी। वैसे उनका यह भी कहना कि इस सबसे अब असली और पात्र लोगों को नौकरी मिलने की उम्‍मीद की जानी चाहिए।
पर एमसीडी में जो न हो जाए कम है। आगे देखते हैं क्‍या होगा। वैसे देखते रहिए जो भी होगा मजेदार ही होगा...

Friday, May 15, 2009

पार्टियों की गजब की मोर्चाबन्‍दी

पहला मोर्चा सबको ललचा रहा है। दूसरा मोर्चा अपने को बांधे रखने की कोशिश कर रहा है, तीसरा मोर्चा हालांकि अभी ठीक से बना नहीं है लेकिन इसके लोग तीसरे मोर्चे को छोड़कर हर किसी से बातें कर रहे हैं, चौथे मोर्चे की हालत पतली है लेकिन अच्‍छी कीमत के लिए पहले मोर्चे को खूब आंखे दिखा रहा है। कुलमिलाकर चारों मोर्चे कम से कम तीन मोर्चों के साथ हैं भी नहीं भी। कोई भी कभी भी किसी के भी साथ लग लेता है। अजब चक्‍कर है। आपको कुछ समझ आया...
आएगा कैसे। यही तो दुनिया के सबसे महान लोकतंत्र की खूबी है।

Thursday, April 30, 2009

लौकी हम भूलेंगे नहीं, कभी नहीं

जेल में अजमल कसाब को मिल रहा है तन्‍दूरी चिकन और वरुण गांधी को मिली लौकी। साहब भारी अन्‍याय है यह। देखिए इस देश में अब यह हालत हो गई है। एक आतंकवादी की खातिरदारी की जा रही है और हिन्‍दुओं की तरफ से बोलने वाले युवा नेता को प्रताड़ि‍त किया जा रहा है। अब यह भी कोई बात है। भई वरुण आम कैदी थोड़े थे जो उन्‍हें लौकी खिला कर टरका दिया गया। एटा में क्‍या कुछ और नहीं मिलता था। न, न, आप गलत समझ रहे हैं वरुण तो पक्‍के शाकाहारी हैं। अलबत्ता अच्‍छी शाक-सब्जियां भी तो होती हैं। फ्रेंच बीन, ब्रोकोली सबकुछ तो मिलता है हर जगह। पर मायावती के अफसरों को सिर्फ लौकी ही दिखाई दी। अरे और कुछ नहीं तो पनीर तो हर जगह मिल जाता है। अगर एकाध दिन शाही पनीर खिला देते तो यूपी सरकार के खजाने में कौन सी कमी आ जाती। और भई खानपान की आदतों की क्‍या बात है। अब अगर कोई जापान का आदमी हमारे देश में पकड़ा जाए तो हम उसे मछली थोड़े ही खिलाएगे। खाना है तो दाल रोटी खाओ वरना प्रभु के गुण गाओ। हां, तो वरुण के साथ हुआ यह अन्‍याय भुलाया नहीं जाएगा। लौकी हम तुझे भूलेंगे नहीं। याद रखेंगे, याद रखेंगे....

Monday, April 20, 2009

शेर को वॉलीवाल के नेट के पीछे देखा है आपने कभी

गुजरात के शेर नरेन्‍द्र मोदी ने गुजरात में एक जनसभा में अपना भाषण वॉलीवाल के नेट के पीछे खड़े होकर दिया (वीडियो देखें)। वैसे फिर भी जूता पड़ सकता है इसलिए अपने कारनामों के हिसाब से सर्कस वाला लंबा चौड़ा जाल लगवाते तो सुरक्षा की पक्‍की गारंटी रहती। भय हो, भय हो, जूते का...