टीवी पर आजकल एक विज्ञापन बहुत चल रहा है—मीठा है खाना आज पहली तारीख है। मीठे की जरूरत हर जगह है। जिन्दगी के लिए भी और जिन्दगी के अहम हिस्से स्वाद के लिए भी। डॉक्टर बताते हैं कि मीठे से ताकत भी मिलती है। मीठा सबको चाहिए अमीर हो या गरीब। अमीर की तो बात ही अलग है। उसका मीठा उसके रोजमर्रे के खाने का हिस्सा होती है। आजकल का खाता-पीता मिडिल क्लास भी फिक्रप्रूफ है इस मामले में। शाम को मॉल या मिठाई की दुकान में ठीक-ठाक मीठा खा लेता है। पहली तारीख वाला जुमला असल में थोड़े तंगहाल मिडिल क्लॉस के लिए है। उसके लिए मीठे का मतलब है कम से कम पूरे परिवार के लिए दो-ढाई सौ रूपये खर्चना। इसके लिए उसे पहली तारीख का इंतजार तो करना ही पड़ेगा (भाई बड़ा जुल्म है ये तो...)।
होली की तरह जन्माष्टमी भी मिठाई वाला त्यौहार है। याद आता है कि जन्माष्टमी पर घर पर नारियल वाली और कोई और किस्म की बरफी बनती थी। जिसे जमने के बाद थाली में चाकू से काटने में बड़ा मजा आता था। क्या जीवन में जैसे मिठास कम हो रही है वैसे मिठाई का रोल भी कम होता जा रहा है। या बाजार ने मीठे को हड़प लिया है। पहले चंद रूपयों में घर में बन जाने वाली देसी और बेहद पौष्टिक बरफी की जगह अब चॉकलेट खाने के लिए पहली तारीख का इंतजार करना कुछ बताता है। यह बाजार को मीठाद्रोही बनाकर हमारे सामने लाता है। बाजार ने सिर्फ जिन्दगी से ही नहीं हमारे खान-पान से भी मिठास छीन ली है।
लेकिन जिन्दगी है तो मीठा होगा ही। इस तंगहाल मिडिल क्लॉस से मीठा बेशक थोड़ा दूर हो चला हो लेकिन गरीब तबके ने महंगे होते मीठे के अपने विकल्प ढूंढ़ लिये हैं। अगर आप बीड़ी-सिगरेट-पान के खोखे पर जाएं, चाय की थड़ी पर बैठें तो सबसे सामने मिठाइयों के मर्तबान नजर आ जाएंगे। यहां सब कुछ है। एक रूपये की बरफी, दो रूपये में पतीसा, बेसन और बूंदी का लड्डू, नारियल की बरफी भी है तो डोडे और बालूशाही की शक्लोसूरत वाली मिठाइयां भी। दिमाग में आएगा—अमां ये पान की दुकान है या हलवाई पहलवान। जाहिर है एक-दो-तीन रूपये में ये लजीज मिठाइयां असली मिठाइयों की क्लोन हैं। लेकिन हैं बहुत बढि़या चीजें। 60 से 100 रुपया रोजाना कमाने वाले की न तो पहली तारीख आती है और न उसकी औकात होती है दो-ढाई सौ की मिठाई या चॉकलेट खाने की। लेकिन मीठा तो उसे भी चाहिए। लिहाजा ये सस्ती मिठाइयां इसकी भरपाई करती हैं। इस तबके के लिए 5 रुपये में जलेबी खा लेना भी इसी का एक विकल्प है। असल में इस आबादी को हाड़तोड़ मेहनत के बाद खाने को तो कुछ खास मिलता नहीं है। और शरीर मेहनत के बाद खुराक मांगता है। इस कुछ भरपाई यह आबादी मीठा खाकर करती है। चाहे वह पान की दुकान पर एक रुपये की बरफी खाकर हो या 5 रुपये की जलेबी खाकर। यहां पर इसकी गुणवत्ता की बात बेमानी है। बात मीठेपन की है जो जरूरी है। सो वह न तो पहली तारीख का इंतजार करता है न रोकता-झींकता है। अपनी मुश्किल जिन्दगी को मीठे से थोड़ी देर ताजादम और प्रफुल्लित करके आगे बढ़ जाता है फिर से इस पूरी दुनिया के लिए खटने के लिए...। मीठापन शायद उसी के पास सबसे ज्यादा है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता?
1 comment:
दिनेश जी के ब्लाग पर आपका कमेंट पढ़ा
लगा मैने ही लिखा है…तो सहमति दर्ज़ करा दी!
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