Tuesday, November 18, 2008

ओबामा की असलियत और बनाई जा रही छवि

आजकल एक बुखार पूरी दुनिया में चल रहा है। ओबामा वायरल। पूरी दुनिया में अमेरिका के नये राष्‍ट्रपति को बदलाव के नये मसीहा के रूप में दिखाने की कोशिश की जा रही है। कोई उन्‍हें दलितों-पिछड़ों का विश्‍व प्रतिनिधि बता रहा है तो कोई 'समाजवादी' विचारों वाला प्रगतिशील नेता। मीडिया से लेकर प्रबुद्ध तबका भी गदगद है। हालांकि असलियत कुछ और है। ओबामा की लोकप्रियता की एक वजह उनका अश्‍वेत होना है। जबकि अमेरिका के अश्‍वेत आंदोलन यानी मार्टिन लूथर किंग की विरासत से उनका कोई लेना-देना कभी नहीं रहा। उन्‍होंने अश्‍वेतों के किसी आंदोलन को समर्थन या उसमें शिरकत नहीं की। बहुत लोगों को हैरानी होगी लेकिन आजकल अपने बयानों से एकदम उलट ओबामा ने अमेरिकी सीनेट में कभी किसी भी युद्ध प्रस्‍ताव का विरोध नहीं किया। 2002 के कुख्‍यात पेट्रियट एक्‍ट 2 के मुखर समर्थक भी वे थे। उन्‍होंने इरान के राष्‍ट्रपति अहमदीनेजाद के संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ को संबोधित करने का काफी विरोध प्रकट किया था। इस चुनाव प्रचार के दौरान उन्‍होंने अपने स्‍टाफ को किसी मुस्लिम वेशभूषा से बचने का सख्‍त आदेश दिया था। ओबामा अफगानिस्‍तान में युद्ध में तेजी और पाकिस्‍तान पर हमलों के हिमायती हैं। मक्‍कैन के चुनाव खर्चे के 2600 अंशदानकर्ता सीईओ थे जबकि ओबामा के 6,000। ओबामा को वाशिंगटन की ताकतवर लॉबी, संचार, इलेक्‍ट्रानिक, हेल्‍थकेयर, न्‍यूक्लियर और दवा उद्योग ने भारी पैसा देकर जिताया है। जाहिर है इसकी कीमत भविष्‍य में वसूली जाएगी। ओबामा के बारे में और भी कई तथ्‍य आज के हिन्‍दू में एजाज अहमद साहब के लेख 'ओबामा प्रेसीडेंसी एण्‍ड सम क्‍वेश्‍चन मार्क्‍स' में दिये गये हैं।
असल में ओबामा ने बड़ी चालाकी से अपने आपको अश्‍वेत आंदोलन की विरासत से जोड़ लिया। उन्‍होंने अपने मुसलमान होने का भी फायदा अपनी छवि बनाने में उठाया। उनके हालिया बयान या विदेश नीति में नरम रूख उनकी प्रगतिशीलता की नहीं अमेरिका के संकट में पड़े पूंजीपति वर्ग की मजबूरी है। दुनिया को ओबामा को उनके असली चेहरे के साथ समझना चाहिए न कि बनाई जा रही और पेश की जा रही छवि के आधार पर।

Friday, November 14, 2008

सिर्फ़ १७ लाख में शंकराचार्य बनिये!

बाबाओं-महन्‍तों के प्रातिनिधिक उदाहरण के तौर पर अमृतानंद सरस्‍वती सामने आया है। जम्‍मू पीठ के शंकराचार्य स्‍वामी अमृतानंद सरस्‍वती उर्फ सुधाकर द्विवेदी उर्फ दयानंद पांडेय उर्फ अमृतेश तिवारी का पैतृक घर देवरिया का अगस्‍तपार गांव है। यह आदमी एयरफोर्स में काम करता था। चाल-चलन ठीक न होने पर नौकरी छूट गयी। बेरोजगार होकर घूमते-घूमते समझ में आया कि सबसे अच्‍छा धन्‍धा तो बाबागीरी का है। इन महाशय को पता चला कि बनारस में शंकराचार्य बनाने की 'फैक्‍ट्री' चलती है। पूछताछ में काशी युवा विद्वत परिषद ने शंकराचार्य बनाने की फीस 17 लाख रूपये बतायी। जुटा कर पैसे दिये और बन गये जम्‍मू के शंकराचार्य। अब क्‍या उंगलियां घी में और सर....। चेन स्‍मोकिंग करने वाले स्‍वामीजी ने दो विवाह किये। मालेगांव धमाके के सिलसिले में अंदर जाने के बाद इनका कच्‍चा-चिट्ठा सामने आता ही जा रहा है। ऐसे ही लोगों के मजबूत कन्‍धों पर ''हिन्‍दुत्‍व'' को बचाने और फैलाने की जिम्‍मेदारी है। पता नहीं इतनी उठापठक, हाय-तौबा धूम-धड़ाम के बावजूद इस देश के लोग ''हिन्‍दुत्‍व'' के चक्‍कर-चपेट में क्‍यों नहीं आते हैं।

Wednesday, November 12, 2008

बजरंग दल का प्रशिक्षण शिविर

आज नई दुनिया में एक फोटो पृष्‍ठ 11 पर छपा है। बजरंग दल के प्रशिक्षण शिविर में "राष्‍ट्र-रक्षा" हेतू वीर नौजवान प्रशिक्षण ले रहे हैं।

आगे-आगे देखिये 'सांस्‍कृतिक क्रान्तिकारी राष्‍ट्रवाद' से निकलता है क्‍या-क्‍या?...

Wednesday, November 5, 2008

इन सादतपुर की गलियों ने बाबा(नागार्जुन) को चलते देखा है!

बाबा नागार्जुन की पुण्‍यतिथि भी उसी तरह चुपचाप गुजर जाती है जिस तरह हमारे देश का आम आदमी चुपचाप गुजर करता चला आ रहा है। बाबा ने अपने इन्‍हीं चुपचाप जीते रहने वालों के लिए कविताएं लिखी थीं। उनके जीवन के दुख-दर्दों को बताती हुई और इसकी जिम्‍मेदार चीजों को सरेआम कटघरे में खड़ा करती हुई। बाबा नागार्जुन इसी वजह से जनकवि कहलाए। भारी-भरकम शब्‍दों की जगह जनता की भाषा और शैली में उसकी अभिव्‍यक्ति लोगों से उनके जुड़ाव को दर्शाती है। कमरे में बैठने की बजाय जीवनपर्यन्‍त घूमते हुए जो देखा वह हमारे देश के यर्थाथ के रूप में उनकी कविताओं में सामने आया। चाहे कोई याद करे न करे लेकिन दिल्‍ली के सादतपुर इलाके जहां उन्‍होंने अपने जीवन के आखिरी वर्ष बिताये थे वहां उनको जरूर याद किया जाता है। सर्वश्री रामकुमार कृषक और उनकी साहित्यकार मित्र टोली इस मौके पर कोई न कोई आयोजन जरूर रखते हैं। इन्‍हीं लोगों के प्रयास से सादतपुर को नागार्जुन नगर नाम दिये जाने की प्रक्रिया भी चल रही है। जनकवि ''यात्री'' को उनकी 9वीं पुण्‍यतिथि पर श्रृद्धांजलि और अपनी पसन्‍द की उनकी लिखी दो कविताएं दे रहा हूं।
अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।
1952

शासन की बंदूक
खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक

बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक

सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक

जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक
1966

Sunday, November 2, 2008

जब नेता शान्ति की बात करते हैं!!!

हमारे नेता आजकल आम आदमी की सुरक्षा की फिकर में दुबले हुए जा रहे हैं। चुनाव जीतने पर सुरक्षा और शांति की बम्‍पर गारंटी का सुनहरा ऑफर परोसा जा रहा है। क्‍या इनकी बात पर विश्‍वास कर लेना चाहिए या इनकी बात से वह मतलब निकाल लेना चाहिए जो इनकी बात से असल में निकल रहा है। बहरहाल बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट जर्मनी के मशहूर कवि थे जो अपनी चुटीली शैली की कविताओं के लिए दुनिया भर में खासे सराहे-पढ़े जाते हैं। उन्‍हीं के शब्‍दों में नेता और किस्‍सा शांति का जानते हैं...

जब नेता शान्ति की बात करते हैं
जब नेता शान्ति की बात करते हैं
आम आदमी जानता है
कि युद्ध सन्निकट है
नेता जब युद्ध को कोसते हैं
मोर्चे पर जाने का आदेश
हो चुका होता है।
------ बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट