कल यानि २२ अक्टूबर को काकोरी के वीर अशफाकुल्ला खान का जन्मदिवस है। अशफाक हमारे देश में क्रांतिकारियों की पहली पीढी के नेता कहे जा सकते है। अंग्रेज़ी हुकूमत के तलवार के ज़ोर पर शासन करने को नामंजूर करने वाले नौजवानों में से थे अशफाक। वे अंग्रेजो से देश को आज़ाद कराने के साथ ही समाज में व्याप्त असमानता को भी दूर करने का ख्वाब देखा करते थे। उनका पक्का यकीन था कि बिना ऊच-नीच, अमीर-गरीब कि खाई को दूर किए बिना आज़ादी का कोई मतलब नहीं है। उनका यह भी मानना था कि इस लडाई को आपस के रंग, जाति, धर्म आदि भेदभाव भुलाये बिना जीता ही नहीं जा सकता। उनका जीवन ख़ुद सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक था। कट्टर आर्यसमाजी रामप्रसाद बिस्मिल के साथ उनकी गहरी दोस्ती थी। वे एक अच्छे शायर भी थे। शहीद अशफाकुल्ला का फाँसीघर से अन्तिम संदेश बहुत कुछ आज भी मायने रखता है।
"हिन्दुस्तानी भाइयो! आप चाहे किसी भी धर्म या संप्रदाय को मानने वाले हों, देश के काम में साथ दो! व्यर्थ आपस में न लड़ो।... "
उनका एक शेर यह है...
कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो ये है,
रख दे कोई ज़रा सी, खाके वतन कफ़न में।
Tuesday, October 21, 2008
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3 comments:
कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो ये है,
रख दे कोई ज़रा सी, खाके वतन कफ़न में।
unhi veero ke kaarn aaj ham hai....
उन्हें नमन
अच्छी जानकारी दी है...अमर शहीद को सलाम...
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