बाबा नागार्जुन की पुण्यतिथि भी उसी तरह चुपचाप गुजर जाती है जिस तरह हमारे देश का आम आदमी चुपचाप गुजर करता चला आ रहा है। बाबा ने अपने इन्हीं चुपचाप जीते रहने वालों के लिए कविताएं लिखी थीं। उनके जीवन के दुख-दर्दों को बताती हुई और इसकी जिम्मेदार चीजों को सरेआम कटघरे में खड़ा करती हुई। बाबा नागार्जुन इसी वजह से जनकवि कहलाए। भारी-भरकम शब्दों की जगह जनता की भाषा और शैली में उसकी अभिव्यक्ति लोगों से उनके जुड़ाव को दर्शाती है। कमरे में बैठने की बजाय जीवनपर्यन्त घूमते हुए जो देखा वह हमारे देश के यर्थाथ के रूप में उनकी कविताओं में सामने आया। चाहे कोई याद करे न करे लेकिन दिल्ली के सादतपुर इलाके जहां उन्होंने अपने जीवन के आखिरी वर्ष बिताये थे वहां उनको जरूर याद किया जाता है। सर्वश्री रामकुमार कृषक और उनकी साहित्यकार मित्र टोली इस मौके पर कोई न कोई आयोजन जरूर रखते हैं। इन्हीं लोगों के प्रयास से सादतपुर को नागार्जुन नगर नाम दिये जाने की प्रक्रिया भी चल रही है। जनकवि ''यात्री'' को उनकी 9वीं पुण्यतिथि पर श्रृद्धांजलि और अपनी पसन्द की उनकी लिखी दो कविताएं दे रहा हूं।
अकाल और उसके बाद
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।
1952
शासन की बंदूक
खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक
बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक
1966
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1 comment:
बाबा नागार्जुन को भी लोग भूल सकते हैं लेकिन उनकी कविताओं को कोई नहीं भुला सकता।
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