Tuesday, December 16, 2008

जूता खाने के बाद बुश का एक्‍सक्‍लूजिव इंटरव्‍यू

पत्रकार- सुना है आप पर जूता फैंका गया है?
बुश - देखिए, मैं अमेरिका का राष्‍ट्रपति हूं। दुनिया के सबसे बेशर्म-कमीने-गलीज़ अपराधियों का सरगना। मुझे इन छोटी-मोटी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता।
पत्रकार - लेकिन फिर भी क्‍या यह आपके लिए शर्मनाक घटना नहीं है? बुश - अगर शर्म ही करनी होती तो मैं राजनीति में ही क्‍यों आता और वैसे भी मैंने इतना झूठ बोला है, इराक-अफगानिस्‍तान-फिलीस्‍तीन से लेकर दुनिया के हर हिस्‍से में इतने नरसंहार करवाये हैं कि मेरे सामने तो शर्म भी आकर शर्म से डूब मरे। पत्रकार - आप पर जूता क्‍यों फेंका गया? बुश - लोकतंत्र की वजह से। देखिये मुक्‍त समाजों में ही ऐसा संभव है। इससे साबित होता है कि इराक में लोकतंत्र जड़ें जमा चुका है। पत्रकार - क्‍या आपको डर नहीं लग रहा? बुश - (ऑफ द रिकार्ड) सच बताऊं, डर के मारे तो मेरी हालत खराब है लेकिन क्‍या करुं। ये सीट ही ऐसी है, जी कड़ा करके, नॉर्मल दिखने की कोशिश कर रहा हूं।
पत्रकार - आखिरी सवाल, इस घटना का अमेरिका पर क्‍या असर पड़ेगा? बुश - देखिये आजकल पूरी दुनिया में मंदी चल रही है। हमारे देश में सबसे ज्‍यादा हालत पतली है। मैंने इन सड़े जूतों को संभाल कर अपने पास रख लिया है। मैं इन्‍हें अमेरिका ले जाकर फुटवियर उद्योग को बेलआऊट पैकेज में दे दूंगा। हमारी अर्थव्‍यवस्‍था में इनसे थोड़ा सुधार जरूर आएगा। (नोट : यह पत्रकार बिना जूतों के ठंड में कांपते हुए इंटरव्‍यू ले रहा था)

Tuesday, November 18, 2008

ओबामा की असलियत और बनाई जा रही छवि

आजकल एक बुखार पूरी दुनिया में चल रहा है। ओबामा वायरल। पूरी दुनिया में अमेरिका के नये राष्‍ट्रपति को बदलाव के नये मसीहा के रूप में दिखाने की कोशिश की जा रही है। कोई उन्‍हें दलितों-पिछड़ों का विश्‍व प्रतिनिधि बता रहा है तो कोई 'समाजवादी' विचारों वाला प्रगतिशील नेता। मीडिया से लेकर प्रबुद्ध तबका भी गदगद है। हालांकि असलियत कुछ और है। ओबामा की लोकप्रियता की एक वजह उनका अश्‍वेत होना है। जबकि अमेरिका के अश्‍वेत आंदोलन यानी मार्टिन लूथर किंग की विरासत से उनका कोई लेना-देना कभी नहीं रहा। उन्‍होंने अश्‍वेतों के किसी आंदोलन को समर्थन या उसमें शिरकत नहीं की। बहुत लोगों को हैरानी होगी लेकिन आजकल अपने बयानों से एकदम उलट ओबामा ने अमेरिकी सीनेट में कभी किसी भी युद्ध प्रस्‍ताव का विरोध नहीं किया। 2002 के कुख्‍यात पेट्रियट एक्‍ट 2 के मुखर समर्थक भी वे थे। उन्‍होंने इरान के राष्‍ट्रपति अहमदीनेजाद के संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ को संबोधित करने का काफी विरोध प्रकट किया था। इस चुनाव प्रचार के दौरान उन्‍होंने अपने स्‍टाफ को किसी मुस्लिम वेशभूषा से बचने का सख्‍त आदेश दिया था। ओबामा अफगानिस्‍तान में युद्ध में तेजी और पाकिस्‍तान पर हमलों के हिमायती हैं। मक्‍कैन के चुनाव खर्चे के 2600 अंशदानकर्ता सीईओ थे जबकि ओबामा के 6,000। ओबामा को वाशिंगटन की ताकतवर लॉबी, संचार, इलेक्‍ट्रानिक, हेल्‍थकेयर, न्‍यूक्लियर और दवा उद्योग ने भारी पैसा देकर जिताया है। जाहिर है इसकी कीमत भविष्‍य में वसूली जाएगी। ओबामा के बारे में और भी कई तथ्‍य आज के हिन्‍दू में एजाज अहमद साहब के लेख 'ओबामा प्रेसीडेंसी एण्‍ड सम क्‍वेश्‍चन मार्क्‍स' में दिये गये हैं।
असल में ओबामा ने बड़ी चालाकी से अपने आपको अश्‍वेत आंदोलन की विरासत से जोड़ लिया। उन्‍होंने अपने मुसलमान होने का भी फायदा अपनी छवि बनाने में उठाया। उनके हालिया बयान या विदेश नीति में नरम रूख उनकी प्रगतिशीलता की नहीं अमेरिका के संकट में पड़े पूंजीपति वर्ग की मजबूरी है। दुनिया को ओबामा को उनके असली चेहरे के साथ समझना चाहिए न कि बनाई जा रही और पेश की जा रही छवि के आधार पर।

Friday, November 14, 2008

सिर्फ़ १७ लाख में शंकराचार्य बनिये!

बाबाओं-महन्‍तों के प्रातिनिधिक उदाहरण के तौर पर अमृतानंद सरस्‍वती सामने आया है। जम्‍मू पीठ के शंकराचार्य स्‍वामी अमृतानंद सरस्‍वती उर्फ सुधाकर द्विवेदी उर्फ दयानंद पांडेय उर्फ अमृतेश तिवारी का पैतृक घर देवरिया का अगस्‍तपार गांव है। यह आदमी एयरफोर्स में काम करता था। चाल-चलन ठीक न होने पर नौकरी छूट गयी। बेरोजगार होकर घूमते-घूमते समझ में आया कि सबसे अच्‍छा धन्‍धा तो बाबागीरी का है। इन महाशय को पता चला कि बनारस में शंकराचार्य बनाने की 'फैक्‍ट्री' चलती है। पूछताछ में काशी युवा विद्वत परिषद ने शंकराचार्य बनाने की फीस 17 लाख रूपये बतायी। जुटा कर पैसे दिये और बन गये जम्‍मू के शंकराचार्य। अब क्‍या उंगलियां घी में और सर....। चेन स्‍मोकिंग करने वाले स्‍वामीजी ने दो विवाह किये। मालेगांव धमाके के सिलसिले में अंदर जाने के बाद इनका कच्‍चा-चिट्ठा सामने आता ही जा रहा है। ऐसे ही लोगों के मजबूत कन्‍धों पर ''हिन्‍दुत्‍व'' को बचाने और फैलाने की जिम्‍मेदारी है। पता नहीं इतनी उठापठक, हाय-तौबा धूम-धड़ाम के बावजूद इस देश के लोग ''हिन्‍दुत्‍व'' के चक्‍कर-चपेट में क्‍यों नहीं आते हैं।

Wednesday, November 12, 2008

बजरंग दल का प्रशिक्षण शिविर

आज नई दुनिया में एक फोटो पृष्‍ठ 11 पर छपा है। बजरंग दल के प्रशिक्षण शिविर में "राष्‍ट्र-रक्षा" हेतू वीर नौजवान प्रशिक्षण ले रहे हैं।

आगे-आगे देखिये 'सांस्‍कृतिक क्रान्तिकारी राष्‍ट्रवाद' से निकलता है क्‍या-क्‍या?...

Wednesday, November 5, 2008

इन सादतपुर की गलियों ने बाबा(नागार्जुन) को चलते देखा है!

बाबा नागार्जुन की पुण्‍यतिथि भी उसी तरह चुपचाप गुजर जाती है जिस तरह हमारे देश का आम आदमी चुपचाप गुजर करता चला आ रहा है। बाबा ने अपने इन्‍हीं चुपचाप जीते रहने वालों के लिए कविताएं लिखी थीं। उनके जीवन के दुख-दर्दों को बताती हुई और इसकी जिम्‍मेदार चीजों को सरेआम कटघरे में खड़ा करती हुई। बाबा नागार्जुन इसी वजह से जनकवि कहलाए। भारी-भरकम शब्‍दों की जगह जनता की भाषा और शैली में उसकी अभिव्‍यक्ति लोगों से उनके जुड़ाव को दर्शाती है। कमरे में बैठने की बजाय जीवनपर्यन्‍त घूमते हुए जो देखा वह हमारे देश के यर्थाथ के रूप में उनकी कविताओं में सामने आया। चाहे कोई याद करे न करे लेकिन दिल्‍ली के सादतपुर इलाके जहां उन्‍होंने अपने जीवन के आखिरी वर्ष बिताये थे वहां उनको जरूर याद किया जाता है। सर्वश्री रामकुमार कृषक और उनकी साहित्यकार मित्र टोली इस मौके पर कोई न कोई आयोजन जरूर रखते हैं। इन्‍हीं लोगों के प्रयास से सादतपुर को नागार्जुन नगर नाम दिये जाने की प्रक्रिया भी चल रही है। जनकवि ''यात्री'' को उनकी 9वीं पुण्‍यतिथि पर श्रृद्धांजलि और अपनी पसन्‍द की उनकी लिखी दो कविताएं दे रहा हूं।
अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।
1952

शासन की बंदूक
खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक

बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक

सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक

जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक
1966

Sunday, November 2, 2008

जब नेता शान्ति की बात करते हैं!!!

हमारे नेता आजकल आम आदमी की सुरक्षा की फिकर में दुबले हुए जा रहे हैं। चुनाव जीतने पर सुरक्षा और शांति की बम्‍पर गारंटी का सुनहरा ऑफर परोसा जा रहा है। क्‍या इनकी बात पर विश्‍वास कर लेना चाहिए या इनकी बात से वह मतलब निकाल लेना चाहिए जो इनकी बात से असल में निकल रहा है। बहरहाल बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट जर्मनी के मशहूर कवि थे जो अपनी चुटीली शैली की कविताओं के लिए दुनिया भर में खासे सराहे-पढ़े जाते हैं। उन्‍हीं के शब्‍दों में नेता और किस्‍सा शांति का जानते हैं...

जब नेता शान्ति की बात करते हैं
जब नेता शान्ति की बात करते हैं
आम आदमी जानता है
कि युद्ध सन्निकट है
नेता जब युद्ध को कोसते हैं
मोर्चे पर जाने का आदेश
हो चुका होता है।
------ बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट

Tuesday, October 28, 2008

हमारे मन का दीप खूब रौशन हो और उजियारा सारे जगत में फ़ैल जाए

हमारे मन का दीप खूब रौशन हो और उजियारा सारे जगत में फ़ैल जाए इसी कामना के साथ दीपावली की आप सबको बहुत बहुत बधाई। अंतर्जगत के दिए में ज्ञान के तेल से तर्कों की बाती जले ताकि दुनिया से अँधेरा और उसकी नापाक ताकतें दूर हो और सही विचार की रोशनी में मानवता का नया अध्‍याय लिखा जा सकें असली दीवाली उस दिन मनायी जाएगी।

Tuesday, October 21, 2008

कल अशफाक का जन्मदिवस है

कल यानि २२ अक्टूबर को काकोरी के वीर अशफाकुल्ला खान का जन्मदिवस है। अशफाक हमारे देश में क्रांतिकारियों की पहली पीढी के नेता कहे जा सकते है। अंग्रेज़ी हुकूमत के तलवार के ज़ोर पर शासन करने को नामंजूर करने वाले नौजवानों में से थे अशफाक। वे अंग्रेजो से देश को आज़ाद कराने के साथ ही समाज में व्याप्त असमानता को भी दूर करने का ख्वाब देखा करते थे। उनका पक्का यकीन था कि बिना ऊच-नीच, अमीर-गरीब कि खाई को दूर किए बिना आज़ादी का कोई मतलब नहीं है। उनका यह भी मानना था कि इस लडाई को आपस के रंग, जाति, धर्म आदि भेदभाव भुलाये बिना जीता ही नहीं जा सकता। उनका जीवन ख़ुद सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक था। कट्टर आर्यसमाजी रामप्रसाद बिस्मिल के साथ उनकी गहरी दोस्ती थी। वे एक अच्छे शायर भी थे। शहीद अशफाकुल्ला का फाँसीघर से अन्तिम संदेश बहुत कुछ आज भी मायने रखता है।


"हिन्दुस्तानी भाइयो! आप चाहे किसी भी धर्म या संप्रदाय को मानने वाले हों, देश के काम में साथ दो! व्यर्थ आपस में न लड़ो।... "


उनका एक शेर यह है...


कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो ये है,


रख दे कोई ज़रा सी, खाके वतन कफ़न में।

Wednesday, October 8, 2008

बोलो जय श्री राम ! जय श्री राम !

वैसे तो श्रीराम का टमाटर-आलू-प्याज़ से कोई रिश्ता नज़र नहीं आता लेकिन मैंने सोचा जब भाई लोगों ने श्रीराम को राजनीति से इतना जोड़ दिया है तो उनका टमाटर-आलू-प्याज़ से भी कोई न कोई रिश्ता ज़रूर होगा। हमारे यहाँ वैसे भी श्रीराम बड़े काम आते हैं। जब राजनेताओ को चुनावी गंगा पार करनी होती है तो उन्हें केवट की नहीं श्रीराम की ज़रूरत पड़ती है। वह पॉलिटिक्स के खेवनहार है। कोई संकट आ जाए, महंगाई बढ जाए, जनता जीना हराम कर दे, बस प्रभु श्रीराम को याद करना काफी है। सारे संकट चुटकी बजाते हल हो जायेंगे। आजकल तो श्रीराम के परमभक्त 'बजरंगी' भी राजनेताओं की मदद के लिए साक्षात पृथ्वी पर उतर आए हैं। किसी भी अशोक वाटिका में तोड़-फोड़ मचवानी हो, विरोधियों को हिलाना-डुलाना हो, बजरंगी हाज़िर हैं। खैर आजकल फ़िर से टमाटर बड़े महंगे हो गए हैं। और भी कई चीजे महंगी हो गयी है, सो लगता है अब श्रीराम का जल्द ही पदार्पण होगा। हमारे नेताओं की मिसाल दुनिया में मिलना मुश्किल है। असली-नकली मुद्दों को ऐसे गडमड करते है कि जनता हैरान! असली मुद्दे तो चूहे के बिल में समा जाते है और नकली मुद्दे मच्छर बनके हमारे कान में भनभनाकर जीना हराम कर देते है। हम भी राजनेताओं के पीछे-पीछे नकली मुद्दों यानी मच्छरों को ख़त्म करने के लिए अपनी गत्ते की तलवार लेकर पिल पड़ते है। बहरहाल आज टमाटर लेते वक्त श्रीराम को याद करें और दशहरे के मेले जय श्रीराम के रणभेरी नारों के बीच टमाटर के ताजा भाव को याद करें। बाकि त्यौहार का दिन है हंसिये-हंसायीयें, खाईये-खिलाईये और एक बेहद अचर्चित कवि मनबहकी लाल की ये कविता गुनगुनाईये...

जय श्री राम ! जय श्री राम !

आलू-प्याज़ के इतने दाम?
जय श्री राम ! जय श्री राम !


बच्चा-बच्चा राम का होवे

अपना आपा कभी न खोवे

आसमान छूती महंगाई।
चाहे कर दे काम-तमाम !
बोलो जय श्री राम ! जय श्री राम !

बिना नमक के खाओ भात
प्याज़ तामसी है साक्षात
कूव्वत होय मलीदा चापो
हारे को केवल हरिनाम !
बोलो जय श्री राम ! जय श्री राम !

जपो स्वदेशी ! जपो स्वदेशी !
पूँजी लाओ रोज़ विदेशी !
देशी और विदेशी जोंके
चूसे जनता को ज्यों आम !
बोलो जय श्री राम ! जय श्री राम !

Sunday, October 5, 2008

ये आरक्षण-आरक्षण क्या है?

३७,००० रुपया महीना कमाने वाला पिछड़ा कैसे है? ये सवाल मेरे मित्र कुमार विकल को विकल किए हुए था। बड़े चिंतित स्वर में बोले, ये बात तो समझ से परे है। आरक्षण विकास की दौड़ में पिछड़ गए समाज के निचले तबके के लिए था। अगर सरकार साढ़े चार लाख हर साल कमाने वाले को गरीब मानती है तो अमीर तो सिर्फ़ टाटा-अम्बानी-बिडला हुए। मैंने कहा, प्यारे यह भारतीय राजनीती का कमाल है। इस लोकतंत्र में वोट की ताक़त नोट की ताक़त की पासंग भी नहीं है। जरा देखो इस आय सीमा बढने की जहाँ कांग्रेस से लेकर पासवान, शरद यादव, उदितराज और मायावती ने तारीफ की है वहीँ किसी ने इसके खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई। कुल मिलाकर सब क्रीमी लेयर बढाये जाने के पक्ष में है। तर्क दिया जा रहा है की इससे ज्यादा लोग आरक्षण का फायदा उठा पाएंगे। विकल ने मुझे रोककर कहा, लेकिन दलित-पिछडी आबादी के गरीब तो वो माने जायेंगे न जिन्हें अर्जुनसेंगुप्ता कमेटी में देश के ८४ करोड़ लोगो द्वारा २० रुपया रोज़ कमाने वाला बताया गया था। फ़िर क्रीमी लेयर बढाने की वजह? मैंने कहा यह सही है की दलित-पिछडी आबादी के ज्यादातर गरीब २० रुपया रोज़ कमाने वाले ही है, लेकिन दरअसल ये दलित-पिछडी राजनीती की असल ताक़त नहीं है। असल ताक़त हैं इसी आबादी के उभर कर आए नेता। जो इस आबादी को भेड़ की तरह हांक कर वोट डलवा कर अपना उल्लू सीधा करती है। इन उभरे गली-मोहल्लो के नेताओं की ५-७ सालों में तिमंजिला मकान खड़े हो गए हैं, पजेरो जैसी ऊँची गाड़ी रखते है, हाथ और गले सोने के आभूषण होते है और बच्चे इंजिनीअर या मेडिकल की पढ़ाई कर रहे होते हैं। यही तबका बी एस पी , पासवान वगेरह की ताक़त है। सो इन पार्टियों के नेता इनके लिए चिंतित तो होंगे ही। आरक्षण का फायदा अच्छी हैसियत वाला दलित-पिछड़ा ही उठा सकता है। तुम क्या सोचते हो झाडू लगाने वाले छोटे-मोटे काम करने वाले बेचारे क्या खाकर आरक्षण का फायदा उठाएंगे। महान दलित चिन्तक चंद्रभान प्रसाद तो इसी बमुश्किल २ परसेंट खाते-पीते तबके के विकास को पुरी दलित आबादी के विकास मानते है। उनका कहना है जब कुछ दलित पूंजीपति बनेंगे तभी दलित-पिछडो का उद्धार होगा। तो मियां ये सारा खेल उस खाते-पीते दलित-पिछडे तबके और उनकी आने वाली पीढियों के लिए किया जा रहा है। असली गरीब तो अभी बेचारा इन्ही के पीछे घुमने के लिए मजबूर है। और तब तक घूमेगा जब तक वो दुनिया को अमीर और गरीब में बांटकर देखना नहीं सीख जाएगा। विकल को आरक्षण का खेल कुछ समझ में आया।

Wednesday, September 24, 2008

क्या..?? भगतसिंह जन्मशताब्दी वर्ष समाप्त होने वाला हैं!

भगतसिंह जन्मशताब्दी वर्ष बीत गया और राष्ट्रिय पैमाने पर कोई आयोजन नहीं हुआ। सरकार ने जैसे-तैसे औपचारिकता निभा दी। भला हो कुछ स्वतंत्र छात्र-नौजवान संगठनो का जो कभी दिल्ली की बसों में तो कभी दिल्ली, लखनऊ, अलाहाबाद, गोरखपुर और पंजाब जाने वाली ट्रेनों में पर्चे बांटे, गीत गाते, नारे लगाते दिख जाते थे। वरना सरकार की कृपा से तो यह ऐतिहासिक मौका चुपचाप निकल जाता। ये संगठन smritisankalp के ब्लॉग के ज़रिये भी क्रांतिकारियों के विचारों को लोगों तक पहुंचा रहे हैं। जन्मशताब्दी वर्ष के समापन कार्यक्रम को लखनऊ का राहुल फाउंडेशन भी अपने अंदाज़ में मना रहा हैं। २६ तारीख को त्रिवेणी ऑडिटोरियम में शाम ५.३० बजे एस इरफान हबीब की किताब 'बहरों को सुनाने के लिए' का विमोचन होने जा रहा हैं। इस ऐतिहासिक मौके पर हम सबको ज़रूर क्रांतिकारियों को श्रीधांजलि देने की लिए ऐसे कार्यक्रमों में शामिल होना चाहिए।

Friday, September 19, 2008

गुरु डाल-डाल, चेले पात-पात

हैदराबाद के जवाहरलाल नेहरू टेक्नीकल यूनिवर्सिटी के शिक्षक आजकल अपने छात्रों से परेशान हैं। वजह है की गुरुओं ने जो सिखाया उसे छात्रों ने इतनी अच्छी तरह सीखा कि अब गुरुओं की नाक में दम आ गया है। असल में जे एन टी उ के कंप्यूटर और आई टी के छात्र अपने लिए तैयार प्रश्न-पत्र विश्वविध्यालय के सर्वर से ही उड़ा लेते हैं यानी हेक कर लेते हैं। अब शिक्षक हैरान-परेशान हैं कि करें तो क्या करें! ये छात्र इतने तेज़ है कि कालेज प्रशाशन और टीचरों की लाख कोशिशों के बावजूद प्रश्न-पत्र हेक कर ले गए। अपने छात्रों की मेधा देखकर टीचरों के पसीने छूट गए। कुछ इसे आजकल के छात्रों के गिरते नैतिक मूल्य कह सकते हैं पर एक बात तो साफ़ हैं कि ये छात्र अपने गुरुओं से आगे बढ़ गए हैं। इससे यह भी पता चलता हैं कि हमारी शिक्षा प्रणाली कितनी बोझिल हो गयी है। परिक्षा सिर्फ़ रटंत विद्या बन गयी है। और प्रैक्टिकल नोलेज के हिसाब से अनुपयोगी भी। याद करिए अपनी परिक्षा के समय हमारा कितना खून सूखता था। यह शिक्षा जिज्ञासु बच्चों को हतोत्साहित करने वाली हैं। ज्यादा सवाल पूछने वाला छात्र अक्सर टीचरों का अप्रिय बन जाया करता है। असल में यह शिक्षा-प्रणाली सिर्फ़ क्लर्क पैदा करने के लिए बनायी गयी थी। जे एन टी उ के छात्रों का प्रशन-पत्र हेक करना सीधे-सीधे इस प्रणाली पर ही सवाल खड़ा करता है।

बजरंग दल पर भी रोक लगनी चाहिए

ज्यादातर आतंकी संगठन छुपकर अपना काम करते हैं लेकिन हमारे देश में एक संगठन खुलेआम आतंकी कामों को अंजाम दे रहा है। इंसानियत का खून करने वाले इस संगठन के बारे में अभी भी सही तस्वीर लोगों तक नहीं पहुँची है। यह सही मौका हैं कि बजरंग दल के काले कारनामों का कच्चा-चिटठा खोला जाए और उसके हत्यारे चेहरे को देश के सामने उजागर किया जाए। हम लोगों को जानना चाहिए कि धर्म की रक्षा के नाम पर यह संगठन खून बहाने में किसी सिमी या लाश्कारेतैय्ब्बा से कम नहीं हैं। पिछले महीने की २४ तारीख को कानपुर में एक प्राईवेट हॉस्टल के कमरे में विस्फोटक पदार्थ तैयार करते हुए दो लोगों के चीथड़े उड़ गए थे और दो छात्र घायल हो गए थे। पुलिस को कमरे से भारी मात्रा में विस्फोटक, हैण्ड ग्रेनेड, बने-अधबने बम, टाइम डिवाइस और डेटोनेटर समेत बम बनाने का काफी सामान मिला था। मारे गए लोगों में से एक भूपेंद्र सिंह कानपुर शहर में बजरंग दल का पूर्व नगर संयोजक था। आईजी एस एन सिंह ने साफ़ कहा कि टाइम डिवाइस मिलना इस बात का पुक्ता सबूत हैं कि विस्फोट करके सूबे में तबाही मचाने की बहुत बड़ी योजना थी। (२५ अगस्त, २००८-अमर उजाला) इस घटना ने सनसनी मचा दी हालाँकि बजरंग दल के इतिहास और विचारधारा को करीब से जानने वालों के लिए इसमे कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। इस घटना की सीबीआई जाँच की मांग मुख्यमंत्री मायावती ने खारिज कर दी। इस घटना की उच्चस्तरीय जाँच अगर ईमानदारी से करवाई जाए तो और कई राज भी खुल सकते हैं। दो साल पहले भी महाराष्ट्र के नांदेड में भी बजरंग दल के एक कार्यकर्ता के घर बम बनाते हुए दो कार्यकर्ता मारे गए थे और तीन ज़ख्मी हुए थे। नांदेड के आईजी के अनुसार मोके से ज़िंदा पाइप बम हुए थे और चिंता की बात यह थी कि ज़िंदा बम आईईडी किस्म के थे जिसे रिमोट कंट्रोल से संचालित किया जा सकता हैं। सभी मृतक और आरोपी बजरंग दल के सक्रीय कार्यकर्ता थे। (९ अप्रैल २००६, मिडडे और १० अप्रैल, २००६, दी टेलीग्राफ) । यह घटनाये पुख्ता सबूत हैं कि यह संगठन हिंसक और आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न हैं। १९९९ में ऑस्ट्रलियाई पादरी ग्राहम स्टांस और उनके दो छोटे बच्चों को जिंदा ज़लाने से लेकर गुजरात में व्यापक रूप से नरसंहार को अंजाम देने का कारनामे इसी संगठन के नाम हैं। इस संगठन की घटिया और गैर इंसानी मानसिकता का पता तहलका के स्टिंग ओपरेशन से सामने आ चुका हैं जिसमे बाबु बजरंगी नामक दंगों के मुख्य आरोपी ने बेशर्मी के साथ की गयी हत्याओं का वीभत्स वर्णन किया हैं। उसने दो पत्रकारों को मारने की बात भी कैमरे के सामने कबूली थी। कभी पत्रकारों-कलाकारों को पीटना तो कभी पार्क में लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर मारना भी इसके "कर्तव्यों" में शामिल हैं। किसी भी समाज के लिए नफरत और हिंसा की राजनीति करने वाले ऐसे संगठन बहुत बड़ा खतरा हैं। पता नहीं केन्द्र सरकार को इस संगठन को प्रतिबंधित करने के लिए और कितने सबूतों के ज़रूरत है?

Wednesday, September 17, 2008

बोलीविया में गरीब-अमीर आमने-सामने

लैटिन अमेरिका का छोटा देश बोलीविया आजकल एक शानदार रंगमंच बन चुका हैं। समाज की दो विरोधी ताकतें वहां आमने-सामने हैं। प्राकृतिक गैस बहुल चार प्रान्तों के गवर्नरों ने चुनी हुई मोरालेस की सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया हैं। दरअसल मोरालेस वहां के मूल गरीब निवासियों के प्रतिनीधि के तौर पर चुनाव जीत कर आए थे। वे ख़ुद भी एक किसान ही हैं। वहां भूमी-सुधार के तहत भूमिहीन लोगों को खाली पड़ी ज़मीन देने का कानून लागू होने जा रहा हैं जो वहां के अमीर किसानो को पसंद नहीं। वैसे भी मोरालेस और उनकी पार्टी वहां के पूंजीपतियों-नौकरशाहों,कुलक फार्मरों और उनके सरपरस्त अमेरिका को फूटी आँख नहीं सुहाती। सो अमेरिका के इशारे पर चार प्रान्तों के गवर्नरों ने हाईवे जाम कर दिया उनके हथियारबंद समर्थकों ने ताज़ा सुचना मिलने तक ३० गरीब किसानों को 'सबक' सिखा दिया हैं। इतिहास अपने को दोहराता हैं लेकिन ज्यादा उन्नत धरातल पर। खाते-पीते वर्ग से कुछ छिनना सिर्फ़ संसद के ज़रिये, बिना प्रतिरोध की ताक़त जुटाए हमेशा असफल रहता हैं। लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा की बोलीविया की आम जनता इस चुनोती का सामना इतिहास से सबक लेते हूए कर पायेगी या नहीं। आने वाले कुछ दिन इस देश के इतिहास के सबसे उथल-पुथल वाले होंगे इसमे कोई शक नहीं हैं।

Monday, September 15, 2008

चुनाव प्रचार का बजरंगी तरिका!

अधिवेशन ख़तम होते ही बजरंगी भाई लोगों को रोज़गार मिल गया। बाहें उपर करके लग गए चुनाव प्रचार में। सबसे पहले कई लोगों को घायल किया और नौ चर्चों को जला दिया। शायाद नरेन्द्र भाई का संदेश समझ गए थे।